के कूं च्याला, निर्बूधि राजक काथे काथ

A Space for Kumaoni Stories and Way of Life

Friday, March 12, 2010

पूर्बज

कई साल मैं सोया
बूढ़े बरगद के तले
उसकी जड़ें जमती रहीं
भीतर मेरे
धीरे-धीरे
कई साल
बूढ़ा बरगद जगाता रहा मुझे
आता रहा औचक सपनों में
उसकी अँधेरी खोहों से आती
गूंजक आवाजें
उन पूर्बजों की
जिन्होंने बांधे थे धागे
गोलाकार
बूढ़े बरगद के तने पर
तब पूर्बज भी जवान थे
और बरगद भी
फिर मरते रहे पूर्बज
उनके बांधे धागे
तुड़-मुड कर बनती गयीं जटायें
और बूढा होता गया बरगद
अब भी उसकी खोहों से
आती हैं गूंजक आवाजें
दूर पहाड़ी के मंदिर की
घंटियों सी
इन्हीं खोहों में पलते
बच्चे चिड़ियों के
पीढियां दर पीढियां
पूर्बजों द्वारा किये गए
पिंडदान के चावलों पर
बड़ी हो उडती रहतीं हैं
कई दिशाओं में
कुछ चली जातीं हैं दूर
खो जातीं हैं अजनबी आकाश के
स्याह नीलेपन में
कुछ दिग्भ्रमित हो
थक-हार लौट आतीं हैं
बूढ़े बरगद के कोटरों में
कभी-कभी
उकडू गर्दन निकाल
झांक लेती हैं
डरी सी बाहर के
बदलाव-फैलाव से
बिषाक्त हवा से
या हर साल
मनमानी दिशा बदलती
नदी की धार से
जिसके कटाव से खो रहा है
धीरे-धीरे
बूढा बरगद अपनी जडें
और जमीन अपना मातृत्व
रेत-कंकड़ भरी धरती में
नहीं उगता है अन्न
और चिंतित हैं बच्चे चिड़ियों के
कि नहीं करता
कोई आजकल पिंडदान
पूर्बजों की लिए

1 comment:

  1. आब तो मैस सब रीति रिवाज भुलने जाणी पिंडदान को कराल ?

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